भागवद् गीता, हिंदू धर्मग्रंथ जो भारतीय महाकाव्य महाभारत का हिस्सा है। यह जीवन, दर्शन और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है। इसे तीन व्यापक खंडों में विभाजित किया गया है।
- कर्म योग (निःस्वार्थ कर्म का मार्ग) – अध्याय 1 से 6
- भक्ति योग (भक्ति का मार्ग) – अध्याय 7 से 12
- ज्ञान योग (ज्ञान का मार्ग) – अध्याय 13 से 18
इन 18 अध्यायों को योग के रूप में प्रस्तुत किया गया है, यह ग्रंथ जीवन के हर पहलू को छूता है और एक संतुलित, धर्मनिष्ठ, और सफल जीवन जीने की शिक्षा प्रदान करता है।
अध्याय 01 – अर्जुन विषाद योग (अर्जुन का विषाद)
पहले अध्याय में, अर्जुन युद्ध भूमि पर अपने संबंधियों, गुरुओं और मित्रों को देखकर युद्ध लड़ने के अपने कर्तव्य पर संदेह करता है और गहरे विषाद (दुःख) में चला जाता है। वह नैतिक संकट से जूझता है और श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की मांग करता है।
अध्याय 02 – सांख्य योग (ज्ञान योग)
इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता और शरीर के नाशवान होने का ज्ञान देते हैं। वे अर्जुन को यह समझाते हैं कि वह अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करते हुए कर्म करे और परिणाम की चिंता न करे। इसे कर्मयोग की शुरुआत कहा जाता है।
अध्याय 03 – कर्म योग (कर्म का महत्व)
कृष्ण अर्जुन को कर्म योग का उपदेश देते हैं, यानी निस्वार्थ कर्म करना और फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना। वे उसे बताते हैं कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे वह साधारण हो या महान।
अध्याय 04 – ज्ञान कर्म संन्यास योग (ज्ञान और कर्म का संतुलन)
कृष्ण ज्ञान, कर्म और संन्यास (त्याग) का महत्व समझाते हैं। वे कर्म को सही ढंग से करने और उसे भक्ति के रूप में समर्पित करने की शिक्षा देते हैं। अर्जुन को यज्ञ (समर्पण) की अवधारणा भी समझाई जाती है।
अध्याय 05 – कर्म संन्यास योग (कर्म और संन्यास)
इस अध्याय में, श्रीकृष्ण कर्म योग और संन्यास (त्याग) के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि कर्म योग (कर्म का त्याग किए बिना उसे भगवान को अर्पित करना) संन्यास से श्रेष्ठ है।
अध्याय 06 – ध्यान योग (आत्म-संयम और ध्यान)
कृष्ण ध्यान योग और आत्मसंयम की महत्ता पर चर्चा करते हैं। वे अर्जुन को ध्यान की विधि बताते हैं, जो मन को नियंत्रित करने और आत्मा को जानने का एक साधन है। अर्जुन से कहा जाता है कि ध्यान से मन की शुद्धि प्राप्त करें।
अध्याय 07 – ज्ञान विज्ञान योग (ज्ञान और विज्ञान का योग)
इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को ईश्वर के ज्ञान (ज्ञान) और इसके अनुभव (विज्ञान) का महत्व बताते हैं। वे यह भी समझाते हैं कि समर्पण द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
अध्याय 08 – अक्षर ब्रह्म योग (परमात्मा का ज्ञान)
कृष्ण अर्जुन को जीवन और मृत्यु के रहस्यों के बारे में बताते हैं। वे यह समझाते हैं कि जो लोग मृत्यु के समय भगवान को स्मरण करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त करते हैं।
अध्याय 09 – राज विद्या राज गुह्य योग (सर्वोच्च ज्ञान और गुप्त ज्ञान)
कृष्ण अर्जुन को सर्वोच्च ज्ञान और गुप्त ज्ञान का उपदेश देते हैं, जिसमें भक्तियोग को सबसे श्रेष्ठ मार्ग बताया गया है। वे बताते हैं कि सभी प्राणी भगवान के अंश हैं और भक्ति से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।
अध्याय 10 – विभूति योग (भगवान की विभूतियाँ)
इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अपनी विभिन्न दिव्य विभूतियों (महान शक्तियों) का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि वे सभी जीवों और घटनाओं में विद्यमान हैं और उनके ज्ञान से भक्त भगवान को पहचान सकते हैं।
अध्याय 11 – विश्वरूप दर्शन योग (भगवान का विश्वरूप दर्शन)
कृष्ण अर्जुन को अपना विश्वरूप (विराट रूप) दिखाते हैं, जो पूरे ब्रह्मांड को समाहित करता है। अर्जुन इस दिव्य रूप को देखकर विस्मित और भयभीत होता है। यह अध्याय भगवान की सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान प्रकृति को उजागर करता है।
अध्याय 12 – भक्ति योग (भक्ति का मार्ग)
इस अध्याय में, भगवान कृष्ण भक्ति (प्रेम और समर्पण) को योग के सर्वोच्च रूप के रूप में बताते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति को ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ माना जाता है।
अध्याय 13 – क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग (शरीर और आत्मा का ज्ञान)
कृष्ण अर्जुन को शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) के बीच के अंतर को समझाते हैं। वे बताते हैं कि आत्मा अजर-अमर है और शरीर नश्वर। आत्मा को जानने से मोक्ष प्राप्त होता है।
अध्याय 14 – गुणत्रय विभाग योग (प्रकृति के तीन गुण)
इस अध्याय में, कृष्ण प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रजस, और तमस) के बारे में बताते हैं, जो मानव जीवन को नियंत्रित करते हैं। वे अर्जुन को सत्व गुण को अपनाने और अन्य गुणों के प्रभाव से मुक्त होने की सलाह देते हैं।
अध्याय 15 – पुरुषोत्तम योग (परम पुरुष)
कृष्ण अर्जुन को पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि यह संसार एक उल्टा वृक्ष है, जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएं नीचे हैं। भगवान इस वृक्ष से परे हैं और केवल भक्ति के द्वारा ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।
अध्याय 16 – दैवासुर संपद विभाग योग (दैवी और आसुरी प्रकृति)
इस अध्याय में, कृष्ण दैवी और आसुरी स्वभाव के लक्षण बताते हैं। दैवी स्वभाव वाले लोग सद्गुणों का पालन करते हैं और मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं, जबकि आसुरी स्वभाव वाले लोग अधर्म के मार्ग पर चलते हैं और पतन की ओर जाते हैं।
अध्याय 17 – श्रद्धात्रय विभाग योग (श्रद्धा के तीन प्रकार)
कृष्ण अर्जुन को श्रद्धा के तीन प्रकार (सत्व, रजस, और तमस) के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव और गुणों के आधार पर होती है, और यह श्रद्धा उसके कर्मों और मोक्ष को प्रभावित करती है।
अध्याय 18 – मोक्ष संन्यास योग (मोक्ष और संन्यास)
अंतिम अध्याय में, श्रीकृष्ण संन्यास (त्याग) और मोक्ष (मुक्ति) के महत्व को समझाते हैं। वे बताते हैं कि अपने कर्तव्यों को निभाते हुए भगवान की शरण में जाना और निस्वार्थ भाव से कर्म करना मोक्ष का मार्ग है। श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने धर्म का पालन करने और युद्ध में लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं।